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यह समय समानता का है आयोगों के गठन का नहीं

यह समय समानता का है आयोगों के गठन का नहीं

-हमें “किसी का आदमी नहीं” अपना आदमी होना है।
-अपने को क्रेडिट डेबिट और आधार कार्ड होने से बचाना है।
एस आर हरनोट|
इक्कीसवीं सदी है। हम 5जी में प्रवेश कर चुके हैं। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। वह क्रेडिट, डेबिट और आधार कार्ड हो गया है। कोई न कोई किसी न किसी का आदमी है। उसकी पहचान उसके नाम से नहीं टोपियों, गले में लटकें पटकों के रंगों से होने लगी है। और अफसोस कि जाति से भी…..दो से पांच पांच पेंशन लेने वाले हमारे राजनेता अपने अपने आदमियों को, रंगों को जाति के नाम से भिड़ा रहे हैं…. जो अब पत्थर के खेल में तपदील होता दिख रहा है। पहले हिंदू मुस्लिम और अब स्वर्ण दलित…..दलितों के शोषण, अत्याचार की लड़ाईयां तो बरसों बरसों से चली आ रही है…..और आज भी मंदिरों से लेकर स्कूल की खिचड़ी, शादी ब्याह की बैठों, उत्सवों, चुनावों में इसके “उन्नत और शिक्षित” उदाहरण मौजूद हैं।

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इस अलगाव, भाई भाई में फूट, रंगों रंगों में भेद, उनके अपने अपने इस्तेमाल के नायाब तरीके ये ही नेता हमें रोज रोज सीखाते रहते हैं। साहित्य, संस्कृति, कहानी कविता भी इन्होंने पार्टियों में बांट दी हैं, वहां भी खेल अपने अपने आदमी का चल रहा है। यह “अपना आदमी” इस देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे खतरनाक होता जा रहा है। वह स्नेह, अपनेपन और भाईचारे को भूल चुका है….उसके हाथ में इन नेताओं ने पत्थर थमा दिए हैं जो धीरे धीरे घातक हथियारों में बदलने लगे हैं और निःसंदेह मेरी एक कहनी फ्लाई किलर” के किरदारों में देखे जा सकते हैं। किसी को मंहगाई नहीं दिखती, किसी को अपने बैंक के खातों की परवाह नहीं कि अपने ही पैसे निकालने के लिए “देश हित” में आपसे टैक्स वसूला जा रहा, किसी को बढ़ती युवाओं की बेरोजगार फौज नहीं दिखती, गांव गांव से कृषि संस्कृति गायब होती नहीं दिखती, नदियों, बांवड़ियो से गायब होता पानी नहीं दिखता…..आमजन, वंचितों, गरीबों पर हुए अत्याचार नहीं दिखते, मजदूरों के हाथों से गायब किए जा रहे औजार नहीं दिखते, सरकारी दफ्तरों से गायब होती नौकरियां नहीं दिखती।

सभी को कुछ और चाहिए….और यह “और चाहिए” की संस्कृति दिनों दिन बढ़ती जा रही है जिसका इस्तेमाल बहुत शान से हमारे राजनेता कर रहे हैं…..देश हित में। और यह देश हित क्या है….जरा सोचिए आप…..उसमें न देश है, न पृथ्वी, न पहाड़ नदियां न आमजन। उसमें केवल और केवल कुर्सी है, पूंजी है, दबंगता है, शोषण है, भाई को भाई से लड़ाते रहने की अकल्पनीय साजिशें हैं।

क्या अब समय जातियों के नामों पर आयोगों को खोलने का है…? या कि देश को जाति मुक्त करने का….? कितना अच्छा होता कि बहस या पहल इस पर होती। परंतु यहां भी जो खेल राजनीति “अपने अपने आदमी” का खेलती जा रही है उसे हम समझ ही नहीं पा रहे हैं…? समझें भी कहां से….अब हम आधारकार्ड हो गए हैं। डेबिट और क्रेडिट कार्ड हो गए हैं….हमारे वो दिल जिसमें प्यार होता था, आदर होता था, दया होती थी, एक दूसरे के सहयोग करने की ममता होती थी, साथ बैठ कर बड़े बड़े मसले हल करने की पहल और इच्छा शक्ति होती थी उसे राजनीति के जंक फूड ने समाप्त कर दिया है।

इसी का परिणाम है कि हिमाचल प्रदेश के शिमला ग्रामीण चुनाव क्षेत्र के युवा कांग्रेसी विधायक महोदय 68 विधायकों में अकेले स्वर्ण आयोग खोलने की पैरवी कर रहे होते हैं। उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र के बहुत से गांव में पानी की समस्याएं नहीं दिखती, उनकी प्यास नहीं दिखती, कॉरपोरेट सेक्टर के एक प्रतिशत से भी कम कर्मचारियों की पेंशन के लिए वे मौन साधे रहते हैं….उनकी पहल क्रिकेट मैचों में युवाओं और पंचायतों के प्रधानों को भिड़ाने में ज्यादा है…। मेरा गांव शिमला ग्रामीण क्षेत्र का सोलन जिले के साथ का पहला गांव है। पंचायत उसी नाम से हैं लेकिन बरसों बरसों से हम पानी की समस्याओं से जूझ रहे हैं जबकि पानी की उपलब्धता इतनी है कि हमारी पंचायत शिमला जिले की 45 पंचायतों को नियमित पानी दे रही है और उसी पंचायत में तीसरे दिन भी पानी नहीं मिल रहा…हम ऐसे युवा विधायकों का क्या करेंगे जो एक मूलभूत सुविधा पानी भी लोगों को नहीं पीला सकता और आयोगों को खोलने की जबर्दस्त पहल करता हो। वही हाल हमारे युवा जैसे प्यारे प्यारे मुख्यमंत्री के हैं।

शिमला एक सप्ताह से प्यासा है और आपकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं। आपने हिमाचल में आयोगों के नाम से स्वर्ण और दलित भिड़ा दिए हैं। पेंशन के नाम पर आप कर्मचारियों का मजाक उड़ा रहे होते हैं। इस तरह का व्यवहार हिमाचल जैसी देव भूमि में जन्मा कोई इंसान कैसे कर सक्ताभाई…? यहां भी वही खेल हैं…..अपने अपने आदमी का और अब इस खेल को आम जनता को समझना होगा कि इसके बीज जमीन में ही दबे रहें अंकुरित न हो…..अंकुरित तो हो ही गए हैं….और यह कहने में कोई अतिश्यक्ति नहीं कि हम उन्हें खाद पानी खुद अपने हाथों से दिए जा रहे हैं।

कुछ समझो जनता….मत किसी के आदमी बनो…मत अपने को क्रेडिट डेबिट और आधार कार्ड में बदलो, अपने आदमी रही, अपने भीतर के भाईचारे को पहचानो, स्नेह और अपनेपन को देखो…..अंधे बन कर अपने को इस वोट की राजनीति में इस्तेमाल न होने दो। जातिगत लड़ाईयां न लड़ो, लड़ना है तो अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए लड़ो, इस स्वार्थी इस्तेमाल की राजनीति को खत्म करने के लिए लड़ो, अपने होने को बचाए रखने के लिए लड़ो। देश विश्व की शांति के लिए लड़ो। प्यार और भाईचारे से बड़ी न कोई राजनीति है न धर्म।

इस चित्र में इस मुस्कुराते बच्चे को जरूर देखें। हमें अपने गांव, घर, पंचायत, कस्बे, शहर, प्रदेश और देश ऐसे मुस्कुराते चाहिए जाती, धर्म और अपने अपने आदमी की बिसात में लड़ते झगड़ते नहीं….ये को नेता हमें रोज रोज लड़ा भिड़ा रहे हैं इनका बहिष्कार करिए, इन्हें हर वर्ष कई कई पेंशन दे कर अपनी हत्याओं के प्रबंध मत करिए।

Tek Raj

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