Teacher’s Day: जीवन एक सतत प्रक्रिया है एवम् जिंदगी एक अवसर। हम अत्यंत सौभाग्यशाली हैं मनुष्य जीवन की प्राप्ति से और गौरवान्वित हैं एक शिक्षक बन कर। यह एक महान अवसर है कि हमें शिक्षा क्षेत्र जीवनयापन हेतु प्राप्त हुआ है। शिक्षक होना एक पवित्र अहसास है जिसे शिक्षक के अलावा अगर कोई प्राणी महसुस कर सकता है तो वह है “माता”। एक माता और एक शिक्षक दोनों ही सृजक हैं और अपने सृजन से इन्हें बेइंतिहा लगाव रहता है और प्रेम की यह पराकाष्ठा उन्हें मानवीय जीवन की उच्चता का अहसास कराती है।
मनुष्य को एहसास जो कराये कि वह स्वयं निर्माता का प्रतिरूप है, वह शिक्षक है। निर्माण की अपार शक्ति से अवगत कराकर जो प्रकृति के रहस्यों को उजागर कर नित नूतन आविष्कारों से जीवन को जीवंत कर दे, वह शिक्षक है। शिक्षा के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ ही अवस्थित होता हैं एवम् कदापि कोई लघु व्यक्तित्व प्रविष्ट हो भी जाता हैं तो शिक्षा रूपी “पारस” रत्न के स्पर्श से वह भी स्वर्ण समान बहुमूल्य हो जाता है। वस्तुतः शिक्षक उस प्रकाश-स्तम्भ की भांति है, जो न सिर्फ लोगों को शिक्षा देता है बल्कि समाज में चरित्र और मूल्यों की भी स्थापना करता है। कहते हैं बच्चे की प्रथम शिक्षक मां होती है, पर औपचारिक शिक्षा उसे शिक्षक के माध्यम से ही मिलती है।
असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरत्व की ओर की यात्रा ही मानव जीवन का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये, हमारे जीवन में जो भी हमारे सहायक हुये हैं,वे सब हमारे गुरु हैं । मानव जीवन के उद्देश्य को उजागर करता शास्त्रोक्त कथन है :-
“असतो मा सद् गमय
तमसो मा ज्योत्रिगमय
मृत्योर मा अमृतंगमय”
गुरु का शाब्दिक अर्थ भी यही है कि जो ‘गु’ माने अन्धकार से ‘रु’ माने प्रकाश की ओर ले जाये, उसे गुरु कहते हैं।
शास्त्रोक्त कथन है :-
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥
भारत में गुरु-शिष्य की प्राचीन समय से ही लम्बी परंपरा रही है। गुरुओं की महिमा का वृत्तांत ग्रंथों में मिलता है। भारतीय संस्कृति में गुरु का ओहदा भगवान से भी ऊंचा माना गया है। गुरु के महत्व को उजागर करती कबीर दास की पंक्तियां दृष्टव्य है :-
गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।
प्राचीन समय में गुरुकुल में जाकर की शिक्षा ग्रहण की जाती थी और विद्यार्जन के साथ-साथ शिष्य गुरु की सेवा भी करते थे। राम-विश्वामित्र, श्रीकृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरु की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। श्री राम और लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र तो श्रीकृष्ण ने गुरु संदीपनी के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसी की बदौलत समाज को आततायियों से मुक्त भी कराया। गुरु के आश्रम से आरम्भ हुई कृष्ण-सुदामा की मित्रता उन मूल्यों की ही देन थी, जिसने उन्हें अमीरी-गरीबी की खाई मिटाकर एक ऐसे धरातल पर खड़ा किया, जिसकी नजीर आज भी दी जाती है।
एक शिक्षक सामान्य होते हुए भी मनुष्य को महान बनाने की ताकत रखता है। शिक्षक ही वह धुरी होता है, जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए उसकी अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। वह प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है तथा उसके सर्वांगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक गुरु ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है। ऐसी परंपरा हमारी संस्कृति में रही है, इसलिए शास्त्रों कहा गया है :-
“गुरु ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मैः श्री गुरुवेः नमः।।”
जरा सोच कर देखें कि आज हम जो भी हैं, भाषा, सोच-विचार और व्यवहार से, क्या हमने बचपन में यही सीख अपने शिक्षक से नहीं ली थी। कैसे हम बचपन में स्कूल और शिक्षकों द्वारा बताई गई हर बात, घर आकर अपनी मां और पिता को बताते थे। कैसे हम अपने शिक्षक की आज्ञा का अक्षरश: पालन करते थे, तो उनके द्वारा दी जाने वाली सजा के डर से हम जो कुछ भी करते, उसकी बदौलत हम आज एक मुकाम पर खड़े हैं।
गुरु अनंत तक जानिए, गुरु की ओर न छोर। गुरु प्रकाश का पुंज है, निशा बाद का भोर।।
शिक्षक उस किसान की तरह है, जो बचपन में कोमल मिट्टी से हमारे मस्तिष्क में, ज्ञान के असंख्य बीज बोता है। जिसकी फसल हम जिंदगी भर काटते हैं। किसी कुम्हार के समान वह ऊपर से हमें आकार देता है, और नीचे से हाथ लगाकर हमें संभाले रखता है। वह एक लोहार की तरह गर्म लोहे पर कितनी ही चोट करे, लेकिन उसका उद्देश्य हमें आकार देना ही होता है। कभी सोचा है, कि अगर शिक्षक हमें पढ़ना नहीं सिखाते, तो क्या हम अपने शब्दों में आत्मविश्वास भर पाते..? क्या हम अपने उच्चारण को प्रभावी बना पाते..? छोटी-छोटी गलतियों पर शिक्षक द्वारा डांटे जाने पर अगर गलतियां नहीं सुधारते, तो क्या सही और गलत में अंतर जान पाते..? उनके द्वारा कहानियों के माध्यम से दी गई छोटी-छोटी सीख में जीवन के कितने सबक छुपे हुए थे, यह आज हम समझ पाते हैं। गलत, क्यों गलत है, सही क्यों है सही, इन कहानियों किस्सों से ही तो हम अपने छोटे मस्तिष्क में बड़ी-बड़ी सीखों को स्थान दे पाए। जरा सोचिए अगर एक गलती पर बार-बार दोहराने की सजा नहीं मिलती तो क्या, कभी आगे बढ़ पाते जीवन में..? वहीं अटके न रह जाते। शुक्रिया और माफी का सबक हो, या सुबह की प्रार्थना हर छोटा सबक जो आज जिंदगी की जरूरत है, वो बीज शिक्षक ने ही बोया था, जो अंकुरित होकर आज फल देने वाला वृक्ष बन चुका है। ऐसे न जाने कितने बीज, एक शिक्षक बोता है, बगैर फल की अपेक्षा किए, और बन जाते हैं हरे-भरे बाग …सकारात्मकता की छांव और सफलता के फलों से लदे हुए…लेकिन फिर भी उस शिक्षक को किसी फल की चाह नहीं, सिवाए आपके सम्मान और गौरवान्वित करने वाले भाव के……!
शिक्षक दिवस’ शिक्षक के लिए सबसे अहम दिन होता है। शिक्षकों का समाज में सबसे बड़ा स्थान है। गुरु, शिक्षक, आचार्य, अध्यापक या टीचर ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को व्याख्यातित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है। इन्हीं शिक्षकों को मान-सम्मान, सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदर तथा धन्यवाद देने के लिए एक दिन निर्धारित है, जो 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में जाना जाता है। असल में, डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षकीय आदर्श को न सिर्फ भारत में अपितु वैश्विक स्तर पर स्थापित किया तथा न सिर्फ शिक्षकीय पद की गरिमा बढ़ायी, बल्कि वे उच्च पदों पर रहते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहे। वे शिक्षा को सामाजिक बुराइयों का अंत करने के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया मानते थे। अपने ज्ञान को दूसरों में बांटने की अद्भुत प्रतिभा उनमें निहित थी तथा इसी उत्कृष्ट कला के कारण वे एक आदर्श शिक्षक के रूप में विख्यात हुए। उनका मानना है कि शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करें।
असल में शिक्षक शिक्षा और विद्यार्थी के बीच एक सेतु का कार्य करता है और यदि यह सेतु ही कमजोर रहा तो समाज को खोखला होने में देरी नही लगेगी। वर्तमान हालात बहुत अच्छे नहीं हैं लेकिन आज भी इस पद को गरिमापूर्ण और सम्मानीय माना जाता है। आज तमाम शिक्षक अपने ज्ञान की बोली लगाने लगे हैं। किंतु कुछ ऐसे गुरु भी हैं, जिन्होंने हमेशा समाज के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरु और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके। आज शिक्षकों को भी वह सम्मान मिलना चाहिए, जिसके वे हकदार हैं।
वैश्विक शान्ति, समृद्धि एवं सौहार्द में शिक्षा का विशेष महत्व है। शिक्षा मानव के सर्वांगीण विकास का मूल आधार है। प्राचीन काल से आज तक शिक्षा की प्रासंगिकता एवं महत्ता का मानव जीवन में विशेष महत्व है। शिक्षकों द्वारा प्रारंभ से ही पाठ्यक्रम के साथ ही साथ जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है। शिक्षा हमें ज्ञान, विनम्रता, व्यवहार कुशलता और योग्यता प्रदान करती है। आज भी बहुत से शिक्षक शिक्षकीय आदर्शों पर चलकर एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।
आज जब सम्पूर्ण विश्व नैतक,सामाजिक, धार्मिक एवम् राजनैतिक मूल्यों को परिभाषित करने हेतु प्रयासरत हैं तब इस काल में शिक्षा और शिक्षक दोनों का महत्व एवम् भूमिका अत्यंत व्यापक हो जाती हैं। यह कहना समीचीन होगा कि समाज जब भी किंकर्तव्य दशा में पंहुचा है तो उसे दिशा सदैव एक शिक्षक ने ही दिखाई हैं। आज आवश्यकता है कि हम शिक्षक पूर्ण निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर समाज को नई ऊँचाईयों तक पंहुचाने में साधक बनें।
गुरु शिष्य की परंपरा के पवित्र और पावन दिवस पर जीवन पथ को प्रदीप्त करने वाले मेरे सभी गुरुजनों को शिक्षक दिवस पर हार्दिक नमन…… 🙏
अध्यापनं यस्य गुण: सदैव स्वाध्यायकर्माभिमुखा प्रवृत्तिः ।
तं ‘छात्रदेवो भव’ मन्त्रमग्नं विद्यागुरुं तं प्रणमामि नित्यम् ॥
✍️ – डॉ. सुरेन्द्र शर्मा
शर्मा निवास नमाणा, पत्रालय घूण्ड, तहसील ठियोग, जिला शिमला (हि.प्र.)
Teachers Day 2024: शिक्षक होते हैं राष्ट्र के भाग्य के निर्माता !