प्रजासत्ता |
बहुत दुःख होता है जब भी ऐसा कोई किस्सा सामने आता है कि हमारे देश की सरकारें और नेता देश के लिए शहीद हुए जवानों के घर वालों से वादे तो कर देती हैं लेकिन जब उन वादों को पूरा करने का समय आता है उस वक़्त उनको कुछ याद ही नहीं रहता है, अगर उनको याद दिला भी दिया जाये फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ता है।
देवभूमि हिमाचल में भी बहुत से शहीद हुए जवान है जिनकी शाहदत पर सीएम सहित मंत्रियों नेताओं द्वारा बड़े-बड़े वादे तो किये जाते रहें हैं| सरकार और नेताओं द्वारा सड़क , स्कूल को शहीदों के नाम का दर्जा,गांव में स्वास्थ्य केंद्र खोलने, शहीद स्मारक, सामुदायिक भवन इसके अलावा परिवार के सद्स्यों को मदद के लिए अश्वासन न जाने और क्या क्या घोषणाएं कर जाते हैं| लेकिन उनको पूरा करवाने के लिए शहीदों के परिजनों को दर-दर पर नाक रगड़ने पर मजबूर होना पड़ता है| चाहे कीर्ति चक्र विजेता शहीद अनिल चौहान हो, जो वर्ष 2002 असम में ‘ऑपरेशन राइनो’ के दौरान जब शहादत मिली तब वह मात्र 23 साल के थे| शहादत के 18 साल बाद भी सरकार और नेताओं द्वारा किए वादे पूरे नहीं हुए तो उन्हें कीर्ति चक्र लौटाने शिमला आना पड़ता है| इसके बाद कुछ वायदे तो पुरे हुए लेकिन कुछ अभी भी बाकि है|
वहीँ बात करें बीते वर्ष लद्दाख के गलवान घाटी में चीन सैनिकों से हिंसक झड़प में दौरान शहीद हुए हमीरपुर जिले के 21 साल का जवान अंकुश ठाकुर की| जहाँ मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने घर पर जाकर घोषणाएं की थी, लेकिन शहीद के नाम पर आज तक कुछ नहीं हो सका है| शहादत के समय मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने श्मशानघाट के लिए पक्की सडक, शहीद के नाम पर शहीदी गेट, मनोह स्कूल का नामकरण शहीद के नाम पर करने की घोषणा की थी जिस पर कोई काम नहीं हुआ है| जब मुख्यमंत्री द्वारा किये वादे ही नहीं पुरे हो रहे तो अन्य की क्या मिसाल दें| अब हालात वही है कि शहीद अंकुश ठाकुर के परिजन वायदों को पूरा करवाने के लिए प्रशासन के दरवाजे पर आपनी नाक रगड़ रहें है कहीं ज्ञापन दे रहे हैं|
इससे पहले भी बहुत से ऐसे मामले सामने आये हैं जो प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की सुर्खियाँ बने रहे हैं| कुछ वादों पर काम हुआ भी लेकिन अधिकतर अभी भी पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं| राजेश चौहान,जगदीश ,गुरदास, श्याम लाल विकास भरद्वाज ऐसे न जाने कितने और शहीद होंगे जिनकी शाहदत पर की गई घोषणाएं बस सिर्फ घोषणाएं ही रह गई है| जिनका जिक्र एक साथ कर पाना थोड़ा मुश्किल है|
सरकार और नेताओं का ऐसा व्यवहार देखते हुए आज लोगों में बहुत रोष है। लोगों का कहना है कि जब हमको कुछ मिलना ही नहीं है तो फिर हम अपने बच्चों को अर्द्धसैनिक बलों में मरने के लिए क्यों भेजें इससे अच्छा तो वह कोई भी दूसरी नौकरी कर लें वैसे भी कुछ नहीं मिलना है बस एक दिन के सम्मान के अलावा। अगर सभी ऐसा सोचने लगें तो हमारे देश के अर्द्धसैनिक बलों में कौन जायेगा, सरकार को इस विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए।