हिमाचल में सुख की सरकार और उसके नायक सुखविंदर सिंह सुक्खू हर मंच पर व्यवस्था परिवर्तन के दावे करते नज़र आतें हैं। लेकिन असल में प्रदेश की अफसरशाही से न सिर्फ आम लोग बल्कि सत्ताधारी जमात के नेता भी त्राहिमाम-त्राहिमाम..! करते नज़र आ रहे हैं। वहीँ पार्टी को सत्ता में बिठाने के लिए कडा परिश्रम करने वाले पार्टी नेताओं की स्थिति तो आम जनता से भी खराब है। आलम यह है कि प्रदेश के चुनिंदा अफसरों की मनमर्जियां सरकार की मंशा पर पानी फेर रहीं हैं। राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप चाहे लोकतांत्रिक,तानाशाही या पूंजीवाद वाला हो, पर सरकार की नीतियों को कार्य रूप देने का काम अफसरशाही द्वारा ही किया जाता है।
लेकिन प्रदेश में सुख की सरकार और खुद सीएम सुक्खू द्वारा जो फैसले लिए जा रहे हैं उन पर समय अनुसार अमल नहीं हो पानी से बेलगाम अफसर शाही की झलक देखने को मिल रही। यही नहीं जनहितैषी योजनाओं की बात हो या फिर मूलभूत सुविधाओं की, सब पर अफसरशाही इतननी भारी हैं कि सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने से पहले कई बार सोचती है। इसकी वजह से उनके हौसले बुलंद होते जा रहे हैं।
ज्यादातर अफसर तो प्रदेश के विकास में सरकार की मदद ही करते हुए नजर आ रहे हैं। पर कुछ चुनिंदा अफसर हिमाचल सरकार की परेशानी को बढ़ा रहे हैं। हालात ऐसे बन रहे हैं कि हिमाचल प्रदेश सरकार में लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह को भी अधिकारियों को लक्ष्मण रेखा न लांघने की नसीहत के साथ अफसरों को प्रदेश सरकार को दबाने की कोशिश न करने तक की हिदायत दे पड़ी। यही नहीं, हिमाचल सरकार तो अफसरों से इतनी ज्यादा परेशान है कि कई बार मुख्यमंत्री से शिकायत भी की जा चुकी है। मुख्यमंत्री कार्यालय में कुछ ऐसे अधिकारी तैनात हैं, जो न तो विधायकों की सुनते हैं और न ही मंत्रियों की। दिलचस्प बात है कि यह अधिकारी पूर्व जयराम सरकार के वक्त भी मुख्यमंत्री कार्यालय में तैनात थे और मौजूदा सरकार में भी मुख्यमंत्री कार्यालय में ही डटे हुए हैं।
प्रदेश की अफसरशाही को अगर तीन श्रेणियों में बांटा जाए तो पहली श्रेणी के वो अधिकारी शामिल है जो सत्ताधारी दल के साथ मिलकर काम करते हैं तथा उन्हें सरकार बदलने का कोई फर्क नहीं पड़ता। दूसरी श्रेणी वाले जोकि अल्पसंख्या में होते हैं, निप्पक्ष रहकर अपना आदर्श मानकर कार्य करते हैं जबकि तीसरी श्रेणी के अधिकारी बीच का रास्ता अपना कर अपना कार्य चलाते आ रहें हैं। उन्हें पता लग जाता है कि उनका घुड़सवार कितना निपुण, कार्यकुशल व ईमानदार है तथा उनकी कमजोरियों को भांप कर मनमाने ढंग से फुदकते रहते हैं। ऐसे ही हालात सुख की सरकार की छत्रछाया में बनते नजर आ रहे हैं।
खुद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू भी अफसरशाही से खासे परेशान नजर आते हैं। क्योंकि जब भी लोगों की कोई बड़ी समस्या उनके सामने आती है तो वह अधिकारीयों को निर्देश तो देते हैं। बदले में जनता को आश्वाशन मिलता है। लेकिन दी गई समयावधि में वह काम पुरे नहीं हो रहे। निगम और बोर्ड के कर्मचारियों को पेशन का निर्णय हो या परीक्षाओं के परिणामों की बात, इसके आलावा कई अन्य मामले हैं। जिनमे अधिकारी लगभग सभी नई बातों को लागू करने में कोई न कोई अड़ंगा लगा ही देते हैं। ऐसे में प्रदेश की जनता के लिए काम करने में खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है।
पूर्व में जयराम सरकार के वक्त भी अफसरशाही सरकार की सिर दर्दी बनी रहती थी। तब विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस तत्कालीन मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर पर यह आरोप लगाती थी कि जयराम ठाकुर की अफसरशाही पर पकड़ ही नहीं है। अब यही अफसरशाही सुक्खू सरकार के लिए भी सिरदर्द बन गई है, और विपक्षी दल भाजपा भी अब यही आरोप लगा रही है। पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर प्रदेश के कई मंचों पर इस बात को मीडिया के सामने रखते देखें जा सकते हैं।
अगर पूर्व में रहे मुख्यमंत्रियों की बात होती है तो स्वर्गीय वीरभद्र सिंह व प्रोफसर प्रेम कुमार धूमल की बात करें तो उन्होंने बेलगाम अफसरशाही पर अपना नियंत्रण रखकर आम जनमानस की सच्ची सेवा की। हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का यदि उदाहरण दिया जाए तो उन्होंने तो बेलगाम मुख्य सचिव को सस्पैंड तक कर दिया था तथा प्रशासन चलाने का एक उच्चतम उदाहरण दिया था।
पूर्व में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को तो यह मौका नहीं मिला था, लेकिन सुख की सरकार के नायक के पास अभी मौका है। बेलगाम अफसरशाही के पीछे की क्या राजनीति है? यह तो भीतर छिपी हुई बात है, लेकिन यह तो तय है कि सरकार पुरानी हो या नई। कुछ अफसरों का रवैया ज्यों का त्यों ही बना हुआ है। अब ऐसे में देखना दिलचस्प होगा की, नायक फिल्म के अनिल कपूर की छवि वाले मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू इन चंद अफसरों को लाइन पर ला पाते या नहीं? सुख की सरकार की प्रतिष्ठा बचा पाते हैं या नहीं….
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