कभी -कभी अनजाने में लोग फेसबुक पर भी मिल जाते हैं अब कुछ लाइक और शेयर पिछले साल की यादों में फेसबुक मैमोरी में आ जाते हैं शायद उसके भी आते हैं। दोस्त जाने से पहले आपके साथ बिताये दिनों पर अपनी मोहर छोड़ जाते हैं हाँ मैंने उसके साथ कमारा, रजाई तकिया के लिए लड़ाई नहीं की। हफ्ते की लास्ट छुट्टी या कोई खास सीरीज़ छोड़ कर नहीं गयी। बस थोड़ा सा जाना था और उतनी ही काफी था दो अजनबी लोगों को दोस्त बनने में और इसलिए ही मैंने उसे कभी बाहों में कसकर गुडबाय नहीं कहा था न मैंने कभी हक़ से हाथ पकड़कर चूमा उसके दुख में ।
मैंने कभी नहीं कहा कि कमज़ोर पलों को संभाल कर रखना यह मेरी गवाही है कि मैं साथ हूँ। यह भी भरोसा दिलवाया न गया मुझसे की उसकी आँखों से जो गिरने वाले हर आंसू का हिसाब वक़्त पर किया जाएगा। बस वो अपनी प्रॉब्लम बताएगी और कुछ ही घण्टों में सॉल्व कर देंगे इतना ही यकीन दिलवाया गया था मेरे से। फिर वो बहुत बड़ी होगयी और जब आप बड़े हो जाते हैं तो लोग आपसे जिद्द करना छोड़ देते हैं। मुझे भी बाकी दोस्तों ने प्रेक्टिकल रहना सिखया, रटवाया कि चेंज इस द ओनली कॉसन्टेंट। बताया कि दुनिया के दोगलेपन से पनपा यह गुस्सा सिर्फ तुझे और तुझे जला देगा एक दिन। अपनी ज़िंदगी देखने को कहा गया, कहा गया कि एक दिन अपने हिस्से के जख्मों मलहम तुझे खुद बनना है।
अचानक याद आया कि वो समय द्वारा प्रतिकूल परिस्थितियों के लाये हुए भीषण बाढ़ में अचानक मुझसे टकरा गई थी। वक़्त बदल गया उसका समय अनुकूल हो गया और मैं उन परिस्थितियों की चपेट में आने बजह से तनाव में। उसका तो नहीं कह सकते पर समय के पैरों के तले कुचले हुए छोड़ जाने के बाद मैंने सब पर भरोसा करना छोड़ दिया। धीरे-धीरे मैं खुद में गुमसुम कहीं इतना भरोसा कर ही नहीं पाये कि दर्द बांट लूँ किसी। वो जिंदगी का बड़ा मुश्किल दौर था जब मुझे उसकी जरूरत थी और उसने बड़ी आसानी से कहा था कि हम इतेफाक से मिले थे दोस्त नहीं थे जो इमोशनल बॉन्डिंग होती हमारे बीच। फिर उसका अहम और मेरा बहम जो अब बचा भी नहीं था आगे बढ़ गये।
अब जब भी किसी के फोन या मैसज आते तो सुनने को मिलता था तुम बदल चुके हो। यकीन मानिये मुझे बदलना नहीं था पर मैं तो राह का वो पत्थर था जिसे उसने भी ठोकर मार के साइड किया था फिर तुम लोगों ने। अब मेरी दिशा और दशा बदलना बाजिब सा था।
अब मुझे लड़कियों से भी हिचक सी होती है, अब मुझे खुद पर भरोसा नहीं है कि मैं इंसान की पहचान बेहतर कर सकूं अब मेरा कोई भी दोस्त भी नहीं है। अब मुझे डर सा लगता है मैं दोस्ती के लायक हूँ भी कि नहीं।
जब कोई पूछता था उसके लिए तो मैंने कहा अब वो मेरी दोस्त नहीं है और आज जब सब चीजों के बारे में सोचा तो लगा कि हम कभी दोस्त थे ही नहीं। खैर छोड़िये हर चीज़ के लायक हम कभी हो भी नहीं सकते औकात भी बड़ी चीज होती है।
सोच में हूँ न वो दोस्त थी न वो दुश्मन है फिर भी इतना दर्द क्यों है।
फिलहाल तो आठ महीनों से जबसे वो इस शहर में है मुझे लगता है कि “यह शहर तो सोहना है पर मेरा ही दिल लगदा नी”।