तृप्ता भाटिया|
बचपन में दिल्ली का पता नहीं था मुझे, अपने घर से नाना का घर बहुत दूर लगता था। बसें टाइम से चलती थी उस गांव के लिए। बस में खिड़की वाली सीट पर बैठना होता था, मम्मी को डर लगता था कहीं में बाजू बाहर न निकल दूँ। रास्ते में कोई पुल आता था तो मम्मी सिक्का देतीं थीं पानी में फैंकने के लिए, उस समय गंगा, यमुना इन नदियों का भी पता नहीं था, सब पवित्र ही थीं मेरे लिए। फौजियों की गाड़ी देख कर Tata करते थे, मम्मी बोलती थी मामू होते हैं यह फौजी । कोई मंदिर का प्रशाद देता था और छोटे हाथों से गिर जाता था तो मुझे पाप लगता था।
बड़े न होते तो सारे फसाद खड़े न होते!
