तृप्ता भाटिया|
बचपन में दिल्ली का पता नहीं था मुझे, अपने घर से नाना का घर बहुत दूर लगता था। बसें टाइम से चलती थी उस गांव के लिए। बस में खिड़की वाली सीट पर बैठना होता था, मम्मी को डर लगता था कहीं में बाजू बाहर न निकल दूँ। रास्ते में कोई पुल आता था तो मम्मी सिक्का देतीं थीं पानी में फैंकने के लिए, उस समय गंगा, यमुना इन नदियों का भी पता नहीं था, सब पवित्र ही थीं मेरे लिए। फौजियों की गाड़ी देख कर Tata करते थे, मम्मी बोलती थी मामू होते हैं यह फौजी । कोई मंदिर का प्रशाद देता था और छोटे हाथों से गिर जाता था तो मुझे पाप लगता था।
नाना के गांव में सब मामू मसियाँ बहुत थीं, मुझे पापा नहीं माँ के नाम से जाना जाता था वहाँ पर। खेलते-खेलते चोट लग जाती थी तो ज़ख्म पर मिट्टी डाल देते थे और खून निकलना बंद हो जाता था। यह सरहदें, यह नफरतें, यह तनाव का तो अता-पता तक नहीं था। शाम सूरज ढलने के बाद पत्ता तक नहीं तोड़ते थे, पेड़ो से प्यार था, फिर पाप भी लगता था।
बचपन कितना अच्छा और मासूम होता है, न किसी से बैर न विरोध,न अपना न पराया। देश कितना बड़ा होता है पता नहीं था पर पत्ते, नदियां और मिट्टी कितने प्यारे और पवित्र लगते थे।
आज सब बदल गया है, नाना के गांव में मुझे कोई जनता तक नहीं है। ज़िन्दगी गांव से शहर आ गयी। आज देश बड़ा लगता है पर पत्ते कभी-कभी तोड़ देते हैं , मिट्टी हाथ मे लग जाये तुरन्त साफ कर देते हैं। जब तक माँ की पहुंच में थे सब अच्छा था, अब मुस्कुराने की सही बजह और आंसुओं को नज़ाकत आ गयी है। लोग नाम के पीछे लगे सर नेम से अंदाज़ा लगाने लगे हैं, दोस्ती जात वर्ण ढूढने लगी है। एक कूड़ादान सा बनकर रह गए हैं जो लोगों की सही गलत बातों को अपने अंदर समेटे हुए हैं। मासूमियत छीनने का बाद लोग बातों का तो क्या खामोशी का मतलब भी अपने हिसाब से निकलने लगे हैं। समाज ही हमें अलग बनाता है सबसे और फिर शिकायत भी उसे ही रहती है।