मन जब दुखी होता है तो अपने आप ही “आह” या बद्दुआ निकल जाती है और ऐसा भी शांत मन साफ दिल लोग ही कर पाते हैं जो प्रतिशोध ले नहीं पाते या अच्छा होने की बजह से लेना नहीं चाहते। बार-बार अपनी आंखों के आंसू पोंछकर सिर्फ इतना कह पाते हैं कि सब भगवान देख रहा है।
असल मे भगवान कितना देख रहा ये तो पता नहीं पर कुछ टूटा हुआ सीने में जब चुभता है तो आह निकलना एक सामान्य प्रक्रिया का ही हिस्सा है। लगाव ही घाव देते हैं, दोस्त ही दुश्मन बनते हैं और जो अच्छा बनकर टूट चुका होता है वही बहुत बुरा बनता है। हर मनुष्य इस परिस्थिति से कभी न कभी गुज़रता है मैं भी तुम भी।
बस एक दुआ करिये कि यह “आह” ज़ोर से सांस लेने पर दब जाये वरना दुआ बदुआ कबूल होने में समय जरूर लगता है पर होती ज़रूर है। या फिर इंसान जब दुःखी हो, अन्दर से टूटा हुआ हो, तो उन लोगों पर भी प्यार बरसाने लगता है, जिन्हें सामान्य हालात में वह दुत्कारता आया है। जब आप कमज़ोर होते हैं, तो एक तरह की उदारता अपने आप ही जन्म ले लेती है।
आपका अस्ल व्यक्तित्व वह है जब आप सक्षम होते हैं, सामान्य होते हैं। आपकी उदारता संवेदनशीलता का महत्व तभी है, जब आप सक्षम हैं, सामान्य हैं। एक कमज़ोर व्यक्ति की ‘क्षमा’ के कोई मायने नहीं हैं। क्षमा का महत्व भी तभी है, जब प्रतिशोध लेने में समर्थ होने के बावजूद किसी को क्षमा कर दिया जाए। ख़ुशी और ताक़त परोक्ष रूप से असंवेदनशील और शोषक होने को प्रेरित करती हैं।
जहाँ-जहाँ भी सुख है, ताक़त है, वहाँ-वहाँ संवेदनहीन होने की पर्याप्त गुंजाइश है। आपके सुख परोक्ष रूप से किसी के दुःख की माँग करते हैं ; आपकी ताक़त परोक्ष रूप से किसी की कमज़ोरी की माँग करती है।
बहुत कुछ कर सकने की स्थिति में होकर भी, “वैसा बहुत कुछ” न करना ही अस्ल सम्वेदनशीलता है, उदारता है।
तृप्ता भाटिया
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