हिमाचल प्रदेश में सामान्य वर्ग आयोग बनाने की मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर द्वारा घोषणा और उसके बाद अधिसूचना जारी होने से अब प्रदेश का दलित समाज हताश, व अधिकारों के लिए चिंतित और खुद को असुरक्षित महसूस करने लग पड़ा है। जिसको लेकर अब सोशल मीडिया सहित अन्य कई माध्यमों पर चर्चा होनी शुरू हो गई है।
आजादी के 74 वर्ष बाद कहने को तो यह देश बदल रहा है। निश्चित रूप से देश समय के साथ-साथ बदल रहा है लेकिन जिस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं उससे हर कोई सोचने को विवश है कि बदलाव की दिशा अच्छी है या बुरी। आजादी से पहले भी दलित वर्ग त्रस्त रहा लेकिन आज भी दलित अत्याचारों से मुक्ति के लिए छटपटाता नजर आ रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज सुधारकों ने दलितों के लिए बड़े कार्य किए जिससे उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक स्थिति में सुधार हुआ।
बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर और ज्योतिबाफूले के विचारों को हिन्दू समाज ने अपनाया लेकिन आज भी पुरानी मानसिकता सवर्ण जाति में मौजूद है, जो समय-समय पर अपराधों और घटनाओं के जरिये सामने आती रही है।
कहने को तो हिमाचल देवभूमि है, लेकिन आज भी यहां के कई मंदिरों में दलितों का प्रवेश वर्जित है। यह बात खुद जनता के चुने हुए अनुसूचित जाति के विधायकों ने विधानसभा में भी कहीं है।
यहां तक की मरने के बाद भी भेदभाव सहना पड़ता है। शव जलाने के लिए श्मशान भी अलग बने हुए हैं। कई जगह तो दलित समाज के लोगों को शव जलाने के लिए विरोध भी सहना पड़ता है। मीडिया में आई कई खबरों से इस तरह की घटनाओं की जानकारियां सामने निकल कर आई। स्कूलों में बच्चों को अलग बिठा कर खाना खिलाने और कक्षा में अलग बिठाने वाली घटनाएं भी मीडिया के माध्यम से जग जाहिर हुई है।
ऐसे में एक बार फिर सामान्य वर्ग आयोग बनाए जाने की घोषणा से दलित वर्ग अब खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। सदियों से यह वर्ग हमेशा ही ऊंची जाति के लोगों द्वारा प्रताड़ना झेल रहा है राजाओं के समय की बात ले लो या फिर आजादी के बाद अब तक का समय दलित समाज के लोगों को कहीं न कहीं हीन भावना से देखा जाता है।
आज भी प्रदेश के कुछ गांवों के दलित आर्थिक रूप से सवर्णों पर निर्भर हैं, इसलिए वे खुद भी ऐसा करने से बचते हैं जिससे सवर्ण जातियां नाराज न हों। यह एक तरह से दलितों का उत्पीड़न है। समाज के कुछ समुदाय आज भी इन्सान को इन्सान मानने काे तैयार नहीं।
हमारे समाज की विडंबना ही है कि वो अब भी समाज में मौजूद भेदभाव और बराबरी के लिए संघर्ष कर रहा है। जब हम भारतीय समाज की प्रवृति और उसकी दशा का विश्लेषण करते हैं तो एक तरफ़ यह पाते हैं कि संसाधनों और सत्ता पर कुछ लोगों का एकाधिकार है। बहुसंख्यक आबादी संसाधनों और सत्ता में हिस्सेदारी से वंचित है।
इस वजह से भारतीय समाज में कई तरह के वंचित तबक़े मौजूद हैं फिर वो चाहे अनुसूचित जाति हो, अनुसूचित जनजाति हो या फिर अल्पसंख्यक समुदा
समय-समय पर इन जाति समुदायों को लेकर कई आयोगों का गठन हुआ है और इन सभी आयोगों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सामान्य जाति के लोगों की तुलना में इन वंचित समूहों के लोग समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक मापदंडों पर पिछड़े हुए हैं।
हालांकि देश हो या प्रदेश दलितों को सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में प्रतिनिधित्व दिया गया। उन्हें शैक्षणिक संस्थानों में दाख़िला लेने में भी छूट दी गई। लेकिन अभी भी सामाजिक रूप से प्रताड़ना झेलने के अलावा दलितों को सरकारी संस्थानों में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।
न्यायिक व्यवस्था, नौकरशाही, सरकारी महकमों, उच्च शिक्षण संस्थाओं, उद्योग-धंधों और मीडिया में दलितों की उपस्थित लगभग नहीं के बराबर है।
राजनीतिक दलों में भी दलितों के साथ-साथ भेदभाव होता है और शीर्ष नेतृत्व पर तथा-कथित ऊंची जातियों का दबदबा रहता है।
दलितों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के तहत रखा जाता है और वो सिर्फ़ आरक्षित सीटों पर सामान्य जाति के वोटरों के रहमो-करम पर ही चुने जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश में 12 ज़िले हैं। जनगणना के मुताबिक हिमाचल में अपर कास्ट यानि सवर्ण समाज की जनसंख्या 50 फ़ीसदी से ज़्यादा है। इनमें राजपूत करीब 32 फ़ीसद और ब्राह्मण करीब 18 फ़ीसद हैं।
वहीं अनुसूचित जाति करीब 25, ओबीसी 14 और अनुसूचित जन जाति की जनसंख्या करीब 6 फ़ीसदी थी। हिमाचल की 68 विधानसभा में से 20 सीटे रिजर्व है, इनमें में 17 अनुसूचित जाति और 3 अनुसूचित जन जाति के लिए आरक्षित है।
हिमाचल की सियासत में भले ही कभी जाति के आधार पर राजनीति नहीं हुई, लेकिन ये सच है कि यहां हमेशा सामान्य वर्ग का सत्ता में बड़ा दबदबा रहा है।
अगर प्रदेश के पहले अब तक के मुख्यमंत्रियों की बात करे तो इनमें 5 राजपूत और एक ब्राह्राण रहे हैं और अब प्रदेश के नए मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर भी राजपूत है। अनुसूचित जाति से एक भी नही।
ऐसे प्रदेश में जहां सत्ता और प्रशासन में सामान्य वर्ग के लोगों का दबदबा हमेशा से रहा है। अब सामान्य आयोग बनने की घोषणा से दलित समाज के लोगों को लगने लगा है कि अब उनको और दबाव सहना पड़ेगा।
वहीं अब सामान्य वर्ग आयोग की घोषणा से दलित विधायकों को अब दलित लोगों का विरोध भी सहना पड़ेगा क्योंकि दलित समाज से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि दलितों के हितों के लिए उन्होंने विधानसभा में इसके विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाई । किसी ने भी विधानसभा में खड़े होकर इस सामान्य वर्ग आयोग का विरोध नहीं किया।जिसके लिए प्रदेश का दलित तबका साथ मिलकर एक व्यापक गठबंधन तैयार करने की कोशिश में लगा हुआ है।
नोट:- यह लेख किसी की भावना को आहत करने के लिए नहीं है यह लेखक के निजी विचार है।