प्रजासत्ता|
बीते दिनों राज्य सचिवालय में हुई हिमाचल पथ परिवहन निगम की निदेशक मंडल की बैठक में निर्णय लिया गया है कि 205 डीजल बसें खरीदी जाएंगी। इनमें 115 सामान्य 47 सीटर बसें, 30 सामान्य 37 सीटर बसें, 50 एसी बसें और पांच एसी सुपर लग्जरी बसें खरीदी जाएगी। सरकार इस पर 86.15 करोड़ रुपए खर्च करेगी। लेकिन अब इस खरीद को लेकर विपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं द्वारा सवाल खड़े किए जा रहे हैं|
पूर्व परिवहन मंत्री जी.एस.बाली ने बसों की खरीद को लेकर कई सवाल उठाए हैं| पूर्व परिवहन मंत्री जी.एस.बाली ने अपने सोशल मीडिया से एक पोस्ट शेयर करते हुए लिखा “205 बसों की खरीद किसलिए ?
कोरोना काल में देश प्रदेश की आर्थिकी को भारी नुकसान हुआ है।
हिमाचल प्रदेश सीमित आय वाला प्रदेश है| वहीँ भारी बरसात ने हर जगह सड़को के साथ साथ निजी और सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचाया है।
जिससे उभरने और आगामी मानसून आदि से निपटने के साथ साथ कोरोना काल में पटड़ी से उतरी अर्थव्यव्यस्था को सुचारू रूप से चलाने में बजट की नितांत आवश्कयता है।
परिवहन निगम इस महामारी के दौरान घाटे में डूबा है।
निगम के कई रुट अभी तक नहीं चले हैं। बसें खड़ी हैं।
केंद्र से मिली 90:10 मदद से ली गई बसों को यह सरकार सही ढंग से चला नही पाई थी।
तीसरी लहर की भविष्यवाणियां हो रही हैं।
सतर्कता के साथ आर्थिक संसाधनों।की जरूरत होगी।
ऐसी स्थिति में 205 बसें खरीदने की पहल समझ से परे है।
क्या इस समय प्रदेश सरकार की प्राथमिकता बसों की खरीद है ? जब जो बसें है वो भी रुट पर नही चला पा रहीं हैं ।”
बता दें कि हिमाचल प्रदेश में कोरोना काल हिमाचल पथ परिवहन निगम (एचआरटीसी) की आर्थिकी पर भारी पड़ा है। कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों को रोकने के लिए कोरोना कर्फ्यू लगाया गया है। सार्वजनिक परिवहन सेवाएं बंद हैं। एचआरटीसी की बसों की आवाजाही भी बंद थी| आंकड़ो के मुताबिक एचआरटीसी को अब तक 700 करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है। कोरोना कर्फ्यू ने एचआरटीसी की कमर तोड़ दी है।
वहीं अगर बात करे पिछले साल यानी 2020 की तो एचआरटीसी को कर्फ्यू के कारण भी भारी नुकसान उठाना पड़ा था। पिछले साल कर्फ्यू के कारण एचआरटीसी का घाटा करीब 650 करोड़ के आसपास पहुंच गया था। इसके कारण एचआरटीसी की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई थी। हालत यह थी एचआरटीसी कर्मचारियों को वेतन देने में भी असमर्थ हो गया था। कर्मचारियों को वेतन देने के लिए सरकार से ग्रांट का इंतजार करना पड़ रहा था। कई बार कर्मचारियों को एक से दो माह बाद वेतन मिल रहा था।